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कविता

बार-बार कहता था

मंगलेश डबराल


जोरों से नहीं बल्कि
बार-बार कहता था मैं अपनी बात
उसकी पूरी दुर्बलता के साथ
किसी उम्मीद में बतलाता था निराशाएँ
विश्वास व्यक्त करता था बगैर आत्मविश्वास
लिखता और काटता जाता था यह वाक्य
कि चीजें अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं
बिखरे कागज सँभालता था
धूल पोंछता था
उलटता-पलटता था कुछ क्रियाओं को
मसलन ऐसा हुआ होता रहा
होना चाहिए था हो सकता था
होता तो क्या होता।
 

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